बात उन दिनों की है जब मैं फ़रीदाबाद में अपने भाई और भाभी के साथ रहता था। मैं उस समय ओखला में नौकरी करता था। सुबह 7:15 की लोकल पकड़ कर अपने ऑफ़िस जाता था और वहाँ से 6:30 बजे वाली शाम की लोकल से घर वापिस आता था।

लोकल में हज़ारों लोग सफ़र करते थे पर वो एक लड़की उन हज़ारों की भीड़ में मुझ पर बहुत गहरा असर कर गयी।

लोकल में लेडीज़ डिब्बा अलग से था पर वो कभी लेडीज़ डिब्बे में नहीं जाती थी।

कितनी भी भीड़ हो वो अपने लिए जगह बनती हुई एक सामान्य डिब्बे में ही चढ़ती थी।

उसके हाथ में चंद किताबें और एक पर्स हुआ करता था। ना कोई दोस्त ना कोई और वो हमेशा अकेली ही सफ़र करती थी।

बहुत ख़ूबसूरत नहीं थी वो पर उसकी सादगी मुझे अच्छी लगती थी।

वो फ़रीदाबाद से ही मेरी तरह सुबह 7:15 की लोकल में सफ़र करती थी। शाम का सफ़र उसकी सुबह की झलक के बारे में सोच कर ही बीतता था मेरा।

उसके कारण मैं कभी भी अपनी लोकल ट्रेन मिस नहीं करता था। हाँ, अगर उसी को आने में देर हो जाए तो ज़रूर उसके इन्तज़ार में मैं भी अपनी ट्रेन छूट जाने का नाटक करता और वही लोकल लेता जिसने वो जा रही हो।

पहले तो मैं उसे तसल्ली से देखता रहता था पर शायद उसको आभास होने लगा की मैं उसे ही देख रहा हूँ।उसने एक दो बार मुझे घूरा लेकिन फिर भी में उसे चोरी चोरी देख ही लेता था। उसको चोरी चोरी देखने का भी अपना अलग ही मज़ा था।

एक दिन वो 8:00 बजे तक स्टेशन पर आयी ही नहीं। मुझे उस दिन 9:00 बजे तक हर हाल में ऑफ़िस पहुँचना था। पर फिर भी ना जाने क्यूँ मैं उसका इन्तज़ार करता रहा। पर जब वो 8:15 तक भी नहीं आयी तो मुझे मजबूरन ट्रेन में चढ़ना ही पड़ा।

वो जब भी स्टेशन नहीं आती मेरा मन दिन भर बेचैन रहता।

मैं उसका नाम तक नहीं जनता था और ये भी नहीं मालूम था की वो कहाँ रहती है क्या करती है।

एक दिन हिम्मत करके मैं उसकी पास वाली सीट पर बैठ गया। उसकी किताबों पर नज़र डाली तो लगा सायकॉलोजी की स्टूडेंट है। बस उस दिन अपनी इसी उपलब्धि पर अपने आपको शाबाशी देता रहा और उससे कुछ ना पूछा।

एक हफ़्ता और बीत गया। मैं जिस डिब्बे में चढ़ता वो लड़की उस डिब्बे में नहीं चढ़ती। वो मुझसे कुछ नाराज़ सी रहती। मुझे देख लेती तो रास्ता ही बदल लेती।

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था की क्या करूँ? कैसे उसे अपने मन की बात बताऊँ?

एक दिन हिम्मत करके मैंने उसको रोक ही लिया। वो भी जैसे इसी इन्तज़ार में थी की मैं कुछ कहूँ। मेरी बात सुनने के लिए वो रुक गयी और जैसे ही मैंने उसे बताया की वो और उसकी सादगी मुझे बहुत अच्छी लगती है उसने मुझसे पूछा की अगर वो कहे की उसकी इस सादगी का कारण उसका वैधब्य है क्या तब भी इतनी ही अच्छी लगेगी ये सादगी मुझे?

ये सुन कर मैं कुछ बोल ही नहीं पाया और वो एक व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट दे कर चली गयी।

मैं जहाँ था वहीं रह गया और वो दूर चली गयी।

उसके इस जवाब की अपेक्षा ही नहीं थी मुझे।

उस दिन के बाद से मेरा उसे देखने का नज़रिया ही बदल गया। कल तक जो मुझे अच्छी लगती थी आज उसकी इज़्ज़त करने लगा था मैं।

बाद में किसी से पता चला था वो पढ़ती नहीं है प्रफ़ेसर है। अपने सास ससुर की इकलौती बहु जो अपनी  ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभा रही है।

वो आज भी उसी लोकल में सफ़र करती है पर अब मैं वहाँ नहीं रहता। कभी कभी जाता हूँ भैया भाभी से मिलने और देख लेता हूँ उसको भी चुपचाप जब भी सुबह 7:15 की लोकल पकड़ता हूँ फ़रीदाबाद से।

-गुमनाम

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